जिस भक्ति में विनम्रता नहीं वह भक्ति नहीं भ्रम है, यमराज ने एक साधु को दिया डाकू की सेवा का दंड

एक साधु निर्जन स्थान पर आश्रम बनाकर रहते थे. उनके आश्रम में भक्तिभजन प्रवचन आदि चलते रहते थे. वहां पर भक्तों की आवाजाही लगी रहती थी. 

साधु अपने अनुयायियों को ईश्वर में श्रद्धा रखने और बुराइयों से दूर रहने की सीख देते थे. उनके वचनों में एक आकर्षण था. भक्त भाव विभोर होकर उनके प्रवचन सुना करते थे. 

आश्रम के पास एक जंगल में एक डाकू रहता था. उससे लोग बहुत डरते थे. उसकी एक खास बात यह थी कि वह सिर्फ अमीरों से धन लूटता था लेकिन गरीबों को कभी नहीं सताता था.

अजीब संयोग यह हुआ कि साधु और डाकू की मृत्यु एक ही दिन और एक ही समय पर हुई. मरने के बाद दोनों यमराज के दरबार में पहुंचे. वहां उन के कर्मों का बही खाता खुला. 

बही-खाता देखने के बाद यमराज ने कहा- अब तुम्हारी किस्मत का फैसला होने वाला है. तुम्हें अपने बारे में कुछ विशेष कहना है तो कह सकते हो. 

साधु बोला- मैंने अपने जीवन में कभी कोई पाप नहीं किया. मैं हमेशा भक्ति में लीन रहा हूं और दूसरों को भी भक्ति की राह पर चलने की सीख दी है. मैंने लोक में अच्छे कार्य किए. 

जो लोक में अच्छे कार्य करते हैं उनका परलोक सुधरता है. इसलिए ऐसे में लगता है कि मुझे स्वर्ग मिलना चाहिए. और मेरे सुख-सुविधाओं का पूरा ख्याल होना चाहिए. 

यमराज ने डाकू से पूछा- तुम्हें भी कुछ कहना है? डाकू बोला- प्रभु, मैंने तो जीवनभर लूटपाट की है. अब मैं किसी अच्छे परिणाम की अपेक्षा तो रख नहीं सकता. मेरे कर्मों का जो भी दंड हो, वह मुझे दें. 

यमराज ने कहा- हम तुम्हारे दंड का विधान बाद में करेंगे. फिलहाल तुम रोज इस साधु की सेवा किया करो. डाकू तो यमराज की आज्ञा मान तुरंत साधु की सेवा के लिए तैयार हो गया, किंतु साधु डाकू से सेवा लेने को तैयार नहीं था.

साधु ने यमराज से कहा- महाराज, यह कैसा आदेश है? मैं तो इस पापी के स्पर्श से भ्रष्ट हो जाऊंगा. मैंने 

यमराज कुपित हो गए- दूसरों को जीवनभर लूटने वाला डाकू तो विनम्रतापूर्वक तुम्हारी सेवा करने के लिए तैयार है, पर घमंडी साधु, तुम वर्षों की साधना के बाद भी समझ न सके कि हरेक प्राणी के अंदर एक ही आत्मा समाई है. 

यमराज बोले- दूसरे को भक्ति का मार्ग दिखाने वाले साधु तुम्हारी भक्ति अधूरी है. तुम्हारे मन का मैल धोना बहुत जरूरी है. इसलिए आज से रोज तुम इस डाकू की सेवा करोगे. 

साधु निरुत्तर रह गया. उसे समझ में आ गया कि उसकी भक्ति में खोट था. उसने दंड स्वीकार किया और डाकू की सेवा में जुटा.

अपनी भक्ति और अपने सत्कर्मों पर कभी भी अभिमान न करें. विनम्रता और शालीनता की अहमियत किसी भक्ति से कम नहीं. प्रभु भी सरल मन प्राणियों पर अपनी ज्यादा कृपा करते हैं.

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