लालसा कष्ट का कारण बनती है, परोपकार के बदले उपकार के भाव से अभिमान आता है

एक आदमी को जीवन से बड़ी ख्वाहिशें थीं. उसने उन्हें पूरी करने की कोशिश भी की लेकिन सफल नहीं रहा. किसी सत्संगी के संपर्क में आकर उसे वैराग्य हुआ और संत हो गया. संत होने से उसे किसी चीज की लालसा ही न रही. 

संत भगवान की भक्ति में लगे रहते. योग, साधना और यज्ञ-हवन करते. इससे उसे मानसिक सुख मिलता और उसमें दैवीय गुण भी आने लगे. एक बार वह ईश्वर की लंबी साधना में बैठे. 

इससे देवता प्रसन्न होकर उनके पास आए और वरदान मांगने को कहा. संत ने कहा- जब मेरे मन में इच्छाएं थीं तब तो कुछ मिला ही नहीं. अब कुछ नहीं चाहिए तो आप सब कुछ देने को तैयार है. आप प्रसन्न हैं यही काफी है. मुझे कुछ नहीं चाहिए.

देवता ने कहा- इच्छा पर विजय प्राप्त करने से ही आप महान हुए. भगवान और आपके बीच की एक ही बाधा थी, आपकी अनंत इच्छाएं. उस बाधा को खत्मकर आप पवित्र हुए. मुझे भगवान ने भेजा है. इसलिए आप कुछ न कुछ स्वीकार कर हमारा मान रखें.

संत ने बहुत सोच-विचारकर कहा- मुझे वह शक्ति दीजिए कि यदि मैं किसी बीमार व्यक्ति को स्पर्श कर दूं तो वह भला-चंगा हो जाए. किसी सूखे वृझ को छू दूं तो उसमें जान आ जाए. देवता ने वह वरदान दे दिया. 

संत ने रूककर कहा- मैं अपने वरदान में संशोधन चाहता हूं. बीमार व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ और वृक्ष को जीवन मेरे छूने से नहीं मेरी छाया पड़ने से ही हो जाए और मुझे इसका पता भी न चलें. 

देवता ने पूछा- किसी को स्पर्श करने में कोई शंका है? संत ने कहा- बिल्कुल नहीं परंतु मैं नहीं चाहता कि यह बात फैले कि मेरे स्पर्श से लोगों को लाभ होता है. 

शक्ति का अहसास मन को मलिन करके कुच्रकों की रचना शुरू करता है चाहे वह कोई दैवीय सिद्धि ही हो क्यों न हो. उसे श्रेष्ठता का अभिमान होने लगता है. फिर तो यह वरदान मेरे लिए शाप बन जाएगा. अच्छा है कि लोगों का कल्याण चुपचाप हो जाए. 

जब आपकी किसी चीज के लिए बहुत ज्यादा इच्छा होती है तब वह वस्तु आसानी से नहीं मिलती. लालसा घटते ही वह सरलता से उपलब्ध होने लगती है. बहुत ज्यादा इच्छाएं मानसिक अशांति का कारण बनती हैं. 

🙏परोपकार का भाव रखना बहुत अच्छा है लेकिन उस परोपकार के बदले उपकार का भाव रखना लालसा है. लालसा आते ही परोपकार का आपका सामर्थ्य कम होता है. 

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